Ka kahat he

का कहत हे

का कहत हे नदी नरवा सुन अउ थोरकुंन गुन

पानी हर अतका बोहाथे तभू ले ऐ कहाँ जाथे ।

 

बादर अउ  भुइयाँ  ला पूछलव  ऐकर कथानी 

मेटावत जाथे जी धीरे -धीरे तइहा के निशानी ।

 

घाम हर अब्बड़ जनाथे रुख-रही  मन सुखाथे

चिराई -चिरकुन फड़फड़ाथे मनखे का होजाथे ।

 

का कहत हे पहार-परबत सुन अउ थोरकुंन गुन

जंगल हर गुंगवाथे जनावर मन आगि म भूंजाथे ।

 

सूरज बोबा ह हरसाल अंगरा ज्यादा काबर गिराथे

नदिया, नरवा, तरिया तको फेर भाठा होवत जाथे।

 

का कहत हे बर-पीपर ह सुन अउ थोरकुंन गुन

मोर डार पान के चिराई- चिरकुन काबर गवाथे।

 

का कहत हे खेत- खार ह सुन अउ थोरकुंन गुन

राखड़ दवाई छिचे म महुरा ह  देहें म घर बनाथे।

 

तइहा कस सावन नई हे  बादर हर खाली  बड़बड़ाथे

भुइयाँ हर बच्छर जादा सुखाथे अउ धरती हर बेधाथे ।

 

का कहत हे हवा – पानी सुन अउ थोरकुंन गुन

कैसे देशी आमा- अमली अउ धान पान नन्दाथे।

 

कल- कारखाना  के चिमनी हर धुँआ उगलाथे

बाँचे खोंचे रसायन पानी के धारे- धार बोहाथे ।

 

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