Ishq

 

 

तू मुझे देखती ही रही मैं भी तुझे देखता ही रहा 

 

हमको  देखते  ही  रहे  सदा ये जमीं – आसमां

 

तू मुझमें समाती रही मैं तुझमे समाता रहा

 

सुध नहीं है हमें कौन ? क्या कहता रहा ?

 

उम्रभर हमको ये बात खलता  रहा 

 

नफ़रत की आग में ये जहाँ क्यों जलता रहा ?

 

कांटे बिछाए गए क्यों उनके राह में

 

जल रहे हैं वे एक -दूजे कि चाह में

 

मजहब इश्क को क्यों  बनाया ही नही ?

 

लिबाज़ में लिपटे लोग ये समझते ही नहीं 

 

तू हंसती ही रही मैं भी हँसता ही रहा 

 

तू ये समझती रही मैं ये समझता रहा ।

 

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