Khudka kabristan | खुदका कब्रिस्तान

 

अकड़ के चलता है आज हर पीने वाला 

खुद को अर्थव्यवस्था का बता भागीदार 

समझता है स्वयं को सरकार 

शोषण का सिलसिला सदा चला 

बदले तो सिर्फ उसके पर्याय 

जमीदार थे ठेकेदार हो गए 

उन्हीं के तो सरकार हो गए 

ज्यादा हैं  इनसे वे चाटुकार 

हर तंत्र को यह करते बीमार 

व्यक्तिवादी आज मुरझा रहे 

समष्टिवादी खिलखिला रहे ।  

 

गांव खुशहाल है, आबाद है

शहर ही हर तरफ से बर्बाद है 

सेंसेक्स की कहानी का ना हल्ला 

शांति ही शांति है गली मोहल्ला 

मीडिया भी है हलाखान 

तैनात है सीमा में चीन, पाकिस्तान

हंस रहे आज सभी जीव जगत 

मानव कैसे बनता बगुला भगत 

खोदता मानव कैसे खुद का ही कब्रिस्तान 

बड़े-बड़े  होने वाले सम्मेलन

रोटियां बेलने वाले हैं बेलन

बैठक सब जगह है आभासी 

कार्य ,सीख एवं शिक्षा 

महिमामंडन का खंडन हो रहा 

मांगता मानव जान की भिक्षा 

एक बार सोचके ठहर 

सुनामी बन के बताता तेरी नाकामी 

सुनता नहीं क्यों ? ब्रह्मांड में बदनामी 

मानव तू क्या ? बीज बो रहा 

जो नहीं होता था वह हो रहा 

सबको याद आता बंधु – बांधव 

सिर पर करता आज मृत्यु तांडव । 

 

मंदिर ,मस्जिद, गिरजाघर ,गुरुद्वारा 

सब बंद है 

अंतस की गहराई में उतर 

खोज मोती की माला 

एक ही ईश्वर सबके अंदर 

सोच से अपने हमने 

उसको कितना अलग?  बना डाला 

लड़ते- झगड़ते ,रोते – रुलाते 

हम सबको कौन भटकाते ?

 क्यों भटका ते ?

अलग-अलग बताते 

धर्म क्या है ?

आखिर धर्म क्यों है ?

आखिर धर्म किसका है ?

कहां से आया ?

किसके लिए आया यह धर्म ?

धर्म के नाम पर फसाद क्यों ?

दंगा क्यों ?

आदमी नंगा क्यों  ?

धर्म को भी आखिर 

व्यापार ही तो बना डाला 

क्या कभी खुद को खंगाला ?  

 

उसका कर भौतिकी करण 

कुरूप बना दिया 

अदृश्य को बिना देखे 

दृश्यमान बना दिया 

सबको स्वार्थ में लड़ा डाला 

हर पल भारी है 

व्यापारियों का पाला 

देने वालों को तुम क्या दोगे  ?

तुम्हारे रुपयों को क्या करेगा ?

वह सोने को क्या करेगा  ?

पंडित मोमिन पादरी ठेकेदार बन

चलाते हैं ईश्वर को 

पैसों से ही आजकल यह बुलाते हैं 

राजनीतिज्ञों की बाबाओं से मेल है

इसी में पूरी राजनीति का खेल है 

राजनीति में धर्म बदलता रूप 

राजनीतिज्ञ उपयोग करते खूब ।  

 

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